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विधवा की अगन-1

(Vidhva Ki Agan-1)

मेरा नाम सुमन है। मेरी उम्र ४० वर्ष की है। मेरे पति का तीन साल पहले एक दुर्धटना में स्वर्गवास हो गया था। मेरी बेटी स्वर्णा की शादी मैंने अभी चार महीने पहले ही सम्पन्न करा दी थी। स्वर्णा का पति शेखर कॉलेज में असिस्टेन्ट प्रोफ़ेसर था। २५ साल का खूबसूरत लड़का था। वो मेरी बेटी को ट्यूशन पढ़ाने आता था। सामने वाले गेस्ट रूम में मेरी बेटी पढ़ा करती थी। पढ़ा क्या करती थी बल्कि यह कहो कि सेक्स में लिप्त रहती थी। दरवाजे की झिरी में से मैं उन दोनों की हरकतों पर नजर रखती थी।

कुछ देर पढ़ने के बाद वो दोनों एक दूसरे के गुप्त अंगो से खेलने लगते थे। कभी शेखर बिटिया के उभरती हुई छातियों को मसल देता था कभी स्कर्ट में हाथ डाल कर चूत दबा देता था। बेटी भी उसका मस्त लण्ड पकड कर मुठ मारती थी। मैंने समझदारी का सहारा लेते हुये उन दोनों की शादी करवा दी ताकि इस जवानी के खेल में कहीं कुछ गलत ना हो जाये।

शादी के बाद वो अभी तक बहुत खुश नजर आ रहे थे। यूँ तो स्वर्णा के साथ अपने घर में ही रहता था, पर अधिकतर वो दोनों रात मेरे यहाँ ही गुजारते थे।

रात को मैं जानकर के नौ या साढ़े नौ बजे तक सो जाती थी, ताकि उन दोनों को मस्ती का पूरा समय मिले। पर इस के पीछे मुख्य बात ये थी कि मैं उनकी चुदाई को दरवाजे की झिरी में से देखा करती थी। मेरे कमरे की बत्ती बन्द होने के कुछ ही देर बाद मेरे कानो में सिसकारियाँ सुनाई पड़ने लग जाती थी। मैं बैचेन हो उठती थी। फिर मिली जुली दोनों की आहे और पलंग की चरमराहट और चुदाई की फ़च फ़च की आवाजें और मदहोशी से भरे उनके अस्पष्ट शब्द कानों में पड़ते थे। मैं ना चाहते हुए ही बरबस ही धीरे से उठ कर दरवाजे के पास आ कर झिरी में से झांकने लगती थी।

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शेखर का मोटा और लम्बा मदमस्त लण्ड मेरी आंखो में बस चुका था। शेखर का खूबसूरत चहरा, उसका बलिष्ठ शरीर मुझे बैचेन कर देता था। मेरी सांस तेज हो जाती थी। पसीना छलक उठता था। मैं बिस्तर पर बिना जल की मछली की तरह तड़पने लगती थी। चूत दबा कर बल खा जाती थी। पर यहा मेरी बैचेनी समझने वाला कौन था। धीरे धीरे समय निकलता गया….मैं अब रात को या तो अंगुली से या मोमबत्ती को अपनी चूत में घुसा कर अपनी थोड़ी बहुत छटपटाहट को कम कर लेती थी। पर चूत की प्यास तो लण्ड ही बुझा सकता है।

पर हां मेरे में एक बदलाव आता जा रहा था। मैं सेक्स की मारी अब शेखर के सामने अब सिर्फ़ ब्लाऊज और पेटीकोट में भी आ जाती थी। मैं अपनी छातियो को भी नहीं ढंकती थी। लो कट ब्लाऊज में मेरे आधे स्तन बाहर छलके पड़ते थे। शेखर अब नजरें बचा कर मेरे उभारों को घूरता भी था। मैं जब झुकती थी तो वो मेरी लटकी हुई चूंचियो को देख कर आहें भी भरता था, मेरी गांड की गोलाइयों पर उसकी खास नजर रहती थी। ये सब मैं जानबूझ कर ही करती थी…. बिना ये सोचे समझे कि वो मेरा दामाद है।

उसकी वासना भरी निगाहें मुझसे छिपी नहीं रही। मुझे धीरे धीरे ये सब पता चलने लगा था। इससे मेरे मन में वासना और भी भड़कने लगी थी। विधवा के मन की तड़प किसे मालूम होती है? सारी उमंगें…. सारी ख्वाहिशें…. मन में ही रह जाती हैं…. फिर चलती है आगे सिर्फ़ एक कुन्ठित और सूनी जिन्दगी….। पर एक दिन ईशवर ने मेरी सुन ली…. और मुझ पर महरबानी कर दी। और मैं शेखर से चुद गई। मेरी जिन्दगी में बहार आ गई।

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जब भी स्वर्णा ससुराल में होती थी तो अकेलापन मुझे काटने को दौड़ता था। मैं ब्ल्यू सीडी निकाल कर टीवी पर लगा लेती थी। उस शाम को भी ९ बजे मैंने सारा घर बन्द किया और टीवी पर ब्ल्यू पिक्चर लगा कर बैठ गई। चुदाई के सीन आने लगे …. मैंने अपनी ब्रा निकाल फ़ेंकी और सिर्फ़ एक ढीला सा ब्लाऊज डाल लिया। नीचे से भी पेन्टी उतार दी। फ़िल्म देखती जाती और अपनी चूंचियाँ दबाती जाती…. कभी चूत मसल देती…. और आहें भरने लगती…. बाहर बरसात का महौल हो रहा था। कमरे में उमस भी काफ़ी थी। पसीना छलक आया था।

इतने में घर के अन्दर स्कूटर रखने की आवाज आई। मैंने टीवी बन्द किया और यूं ही दरवाजा खोला कि देखूं कौन है। सामने शेख्रर को देख कर मैं हड़बड़ा गई। अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों का मुझे ख्याल ही नहीं रहा। शेखर मुझे देखता ही रह गया।

“शेखर जी…. आओ…. आ जाओ…. इस समय…. क्या हुआ….?”

“जी….वो स्वर्णा के कुछ कपड़े लेने थे…. वो ऊपर सूटकेस में रखे हैं….”

“अच्छा लाओ मैं उतार देती हूँ।” मैंने स्टूल रखा और उस पर चढ़ गई।

“शेखर ! मुझे सम्हालना….!”

शेखर ने मेरी कमर थाम ली। मुझे जैसे बिजली का करण्ट दौड़ गया। उसका एक हाथ धीरे से नीचे कूल्हों पर आ गया। मुझे लगा कि काश मेरे चूतड़ दबा दे। मेरे शरीर में सिरहन सी दौड गई। मैंने सूटकेस खींचा तो मेरा संतुलन बिगड़ गया। पर शेखर के बलिष्ठ हाथों ने मुझे फूल की तरह झेल लिया। सूटकेस नीचे गिर पड़ा। और मैं शेखर की बाहों में झूल गई। मेरा ब्लाऊज भी ऊपर उठ गया और एक चूंची बाहर छलक पड़ी।

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शेखर भूल गया कि मैं अभी भी उसकी बाहों में ही हूं। मैं उसकी आंखो में देखती रह गई और वो मुझे देखता रह गया।

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“श्….श्….शेखर्…. अब उतार दो….” मैं शरमाते हुए बोली। वो भी झेंप गया….पर शरीर की भाषा समझ गये थे….

“ह…. हां हां…. सॉरी….!” उसने मेरा ब्लाऊज मेरे नंगे स्तन के ऊपर कर दिया। मैं शरमा गई।

“आपकी तबियत तो ठीक है….?”

“नहीं…. बस…. ठीक है….” बाहर बादल गरज रहे थे। लगता था बादल बरसने को है।

उसने सूटकेस खोला और कपड़े निकाल लिये। उसकी नजर मेरे ऊपर ही जमी थी। वो मेरे हुस्न का आनन्द ले रहा था। मेरे जिस्म में जैसे कांटे उग आये थे। इतने में बरसात शुरु हो गई। शेखर ने मोबाईल से स्वर्णा से बात की कि मां की तबियत कुछ ठीक नहीं है और बरसात भी शुरु हो गई है….इसलिये रात को वो यहीं रुक रहा है।